विराट अयोध्या की यात्रा पर ले जाती है अहो! अयोध्या – रामबहादुर राय
अहो!अयोध्या
अयोध्या आंदोलन के सृजनात्मक पक्ष अनेक हैं। अनंत हैं। आंदोलन की पूर्णाहुति के पश्चातइस पक्ष पर ध्यान दिया जाने लगा है। लेकिनजब कभी इसका अध्ययन होगा और जानने का प्रयास होगा कि आंदोलन की पूर्णाहुति से पहले ही उसके सृजन पक्ष को केंद्र में रखकर पहली पहल किसने की और कब की, उसका स्वरूप क्या था? इसका उत्तर है- अयोध्या पर्व। यह अयोध्या के आत्म-परिचय का प्रयास है। वर्तमान अयोध्या पौराणिक काल में कैसी थी? उसका विराट रूप क्या था? क्या थी उसकी सांस्कृतिक धारा? उसके मूल स्रोत क्या थे? उस अयोध्या की विरासत क्या है? उसमें सर्वधर्म समभाव का स्वरूप कैसा था? अयोध्या के धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता और अतीत के जनजीवन का जोदार्शनिक आधार था, वह किस भांति और किन प्रतीकों से आज प्रासंगिक बनाया जा सकता है? महात्मा गांधी ने रामराज्य को आदर्शमाना। हमारे सारे पुराण और इतिहास रामराज्य को अद्वितीय ‘न भूतो न भविष्यति’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
‘राम राज बैठे त्रैलोका। हर्षित भए गए सब सोका।।
बयरू न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।’
सदियों की परिवर्तन प्रक्रिया से परिवर्तित होती रही अयोध्या क्या वही है, जिसे आजकल जाना-समझा जाता है? अयोध्या बड़ी है, विराट है। इसे कौन नहीं जानता! प्रश्न दूसरा है। क्या उस विराट अयोध्या का आज कायाकल्प संभव है? असंभव तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ संभव है। यही अयोध्या का संदेश है। यह पुस्तक उस संदेश का स्मरण है। यह स्मरण जितना प्रगाढ़ होगा, उतना ही अयोध्या का विराट दर्शन सुलभ होता जाएगा।
यह पुस्तक कैसे बनी? इसे लेखकीय में बताया गया है। इस पुस्तक का पुरोकथन लिखते समय प्रथम ‘अयोध्या पर्व’ की स्मृतियां मुखर हो उठी हैं। भारत की राजधानी में, वह भी सत्ता के शिखर लुटियन टीले के पास इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कलाकेंद्र के परिसर में जो तीन दिवसीय आयोजन पिछले साल हुआ, वह संत, विचारक, प्रचारक, राजनीतिक नेता और सामान्यजन की उपस्थिति से राष्ट्रीय उपनिषद में परिवर्तित हो गया। उसी से उत्साहित होकर इन लेखकों ने उस अयोध्या को खोजने का प्रयास किया है, जो स्मृतियों में है। वे स्मृतियां कितनी पुरानी हैं, कौन बता सकता है? शायद कोई नहीं। सिर्फ उसकी पुरातनता को उसी तरह अनुभव किया जा सकता है, जैसे कोई मनुष्यश्वासले और प्राणतत्व का प्रवाह अनुभव करे। अयोध्या एक कालगत सत्य है। उस सत्य को खोजना और अनुभव करना मानवीय प्रयत्न की निरंतता को उद्घाटित करता है। अयोध्या शाश्वतहै। मनःस्थिति और परिस्थिति से अप्रभावित है। प्रभावित होता है सिर्फ मनुष्य, शाश्वत सत्य नहीं।
महाभारत और रामायण ऐसे ग्रंथ हैं, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अयोध्या के अजेय स्वरूप का वर्णन करते हैं। वह अयोध्या हमारी स्मृतियों में है। पौराणिक मान्यताओं से भरी-पूरी है। एक अयोध्या त्रेतायुग की है। जिसका एक पौराणिक यथार्थ है कि उस युग में सूर्यवंश में पवित्रतम राजाओं का प्रादुर्भाव होता है। उसी मान्यता के अनुरूप श्रीराम का अवतार त्रेता में होता है। त्रेतायुग कब था?पश्चिम की सभ्यता का सारा इतिहास मात्र पांच हजार वर्षों का है, जबकि पौराणिक गणना करोड़ों वर्षों तक पहुंच जाती है। पौराणिक दृष्टि से कालचक्र अनवरत रीति से चलता रहता है। इसलिए उसकी विकास और ह्रास की प्रक्रिया को पश्चिमकी इतिहासकाल गणना में नहीं बांधा जा सकता। अयोध्या से आस्तिकता का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। ईश्वर अगर आदि और अनंत है तो उसकीसृष्टिका इतिहास कैसे मनुष्य की काल गणना में समा सकता है? आधुनिक विज्ञान जिन आधारों पर कालक्रम का निर्णय करता है, वे अंतिम हैं। यह उनके लिए तो संभव है, जो उसे मानते हैं। ऐसी मान्यता को उत्खनन के आधार पर वैज्ञानिक बनाया जाता है। लेकिन पौराणिक काल में विकास की जिस स्थिति का वर्णन है, वह स्थूल भौतिक पदार्थों के स्थान पर उर्जा के प्रकटीकरण के अन्य साधनों पर आधारित है। उनमें एक साधन का संबंध मनुष्य के अंतःकरण से है। भारतीयमनीषाने अपनी प्रज्ञा से वे कार्य संभव कर दिखाए हैं, जो पश्चिमी के लिए चमत्कार जैसा होता है। अतःकरण और प्रज्ञा के मेल से सदगुणों का जो रसायन बनता है, वह काल के प्रवाह में भी टिका रहता है। त्रेता का युगधर्मक्या था? इसे ही ये पंक्तियां समझाती हैं-
‘शुद्ध सत्व समता विज्ञाना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना।।
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सबबिधि सुख त्रेता कर धर्मा।।’
उसी त्रेता में श्रीराम का अवतार होता है। लेकिन अयोध्या तो उससे पहले से है। कह सकते हैं कि अनादि है। इस पुस्तक में श्रीराम की अयोध्या को चिंहित करने का प्रयास हुआ है। यह प्रारंभ है, इति नहीं। पूरी दुनिया में अपने महनीय व्यक्तित्व के लिए श्रीराम जाने जाते हैं। उनके चरित्र का पहला चित्रण आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने किया। करीब 24 हजार श्लोकोंमेंउन्होंनेरामचरित्र गाया। वह पहला महाकाव्य है। उसे आदि काव्य भी कहते हैं। इस ग्रंथ के आधार पर ही कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य और भवभूति ने उत्तर रामचरित्र नाटक लिखा। भारतीय जनजीवन पर श्रीराम का गहरा प्रभाव पग-पग पर दिखता है। रोम-रोम में प्रकट होता है। भारत की हर धड़कन में श्रीराम हैं। हर श्वास में रमे हुए हैं। जीवन की आशा में परस्पर मिलते हुए दो व्यक्ति एक-दूसरे को राम-राम कहते हैं। मृत्यु पर श्मशान ले जाते समय ‘राम नाम सत्य है’ मंत्र बन जाता है। राम की महिमा अपार है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने महर्षिवाल्मीकि कृत रामायण के आधार पर रामकथा लिखी। पुस्तक का शीर्षकहै-दशरथनंदन श्रीराम। हम जानते हैं कि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल थे। वे अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं-‘परमात्मा की लीला को कौन समझ सकता है! हमारे जीवन की सभी घटनाएं प्रभु की लीला का ही एक लघु अंशहैं। महर्षि वाल्मीकि की राम-कथा को सरल बोलचाल कीभाषा में लोगों तक पहुंचाने की मेरी इच्छा हुई। विद्वान् न होने पर भी वैसा करने कीधृष्टताकर रहा हूं। कंबन ने अपने काव्य के प्रारंभ में विनय की जो बात कही है, उसी को मैं अपने लिए भी यहां दोहराना चाहता हूं। वाल्मीकि रामायण को तमिल भाषा में लिखने का मेरा लालच वैसा ही है, जैसे कोई बिल्लीविशाल सागर को अपनी जीभ से चाट जाने कीतृष्णा करे। फिर भी मुझे विश्वास है कि जो श्रद्धा-भक्ति के साथ रामायण कथा पढ़ना चाहते हैं, उन सबकी सहायता, अनायास ही, समुद्र लांघने वाले मारूति करेंगे। बड़ों से मेरी विनती है कि वे मेरी त्रुटियों को क्षमा करें और मुझे प्रोत्साहित करें, तभी मेरी सेवा लाभप्रद हो सकती है।’
यह उदाहरणस्पष्ट करता है कि रामायण और रामकथा का विस्तार निरंतर होता जा रहा है।
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस घर-घर में पूजा स्थान पर पाईजातीहै। जन-जन में वह जीवनरीति कोसंप्रेषितकरने का बहुत प्रबल माध्यम है। उस रामचरित मानस में अयोध्या वासियों के सौभाग्य की सराहना की गई है। धन्य है वह नगर जहां ब्रह्म का अवतार हुआ। जहां श्रीराम के मंगलमय राज्य में रह कर प्रजा धन्य हुई।
‘उमा अवध बासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्मसच्चिदानंद धन रघुनायक जहॅं भूप।।’
उस अयोध्या का एक परिचय रामकथा में है। रामकथा की अयोध्या की एक झलक इस पुस्तक में उन स्थानों के चिंह से है जो विस्मृत से हो गए थे। रामकथा की महिमा का ही प्रभाव था कि बेल्जियमदेशसेमिशनरीकार्यके लिए भारत आए कामिल बुल्के ने हिंदी सीखी। रामकथा को अपने शोधका विषयबनाया। उसमें इतने रमे कि वे भारत के ही हो गए। उस कामिल बुल्के से हिंदी जगत पूरी तरह परिचित है। उनकी पुस्तक ‘रामकथा’ प्रसिद्ध है। उसके संस्करण निकलते रहते हैं। साहित्यकार धीरेंद्र वर्मा ने उसका परिचय लिखा कि ‘यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा संबंधी समस्त सामग्री काविश्वकोश कहा जा सकता है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी है।’ यह बात 1950 की है।
कामिल बुल्के ने अपनी पुस्तक ‘रामकथा’ में बताया है कि वैदिक साहित्य में भी रामकथा है। महाभारत की रामकथा का भी उन्होंने वर्णन किया है। इसी तरह बौद्ध, जैन रामकथा को उन्होंने खोजा। रामकथा के विकास की कहानी लिखी। और अंत में रामकथा की व्यापकता का विवरण दिया है। उन्होंने लिखा कि ‘जिस दिन वाल्मीकि ने इस प्राचीन गाथा साहित्य को एक ही कथा सूत्र में ग्रंथित कर आदिरामायण कीसृष्टि की, उसी दिन से रामकथा की दिग्विजय प्रारंभ हुई। प्रचलित वाल्मीकि रामायण के बालकांड तथा उत्तरकांड में इसका प्रमाण मिलता है कि काव्योपजीवी कुशीलव समस्त देश में जाकर चारों ओर आदिकाव्य का प्रचार करते थे। वाल्मीकि ने अपने शिष्यों को रामायण सिखाई। उसे राजाओं, ऋषियोंतथा जनसाधारण को सुनाने का आदेश दिया था।’
‘इस प्रकार रामकथा की लोकप्रियता तथा व्यापकता दिनों दिन बढ़ती जा रही थी।महाभारत के रामोपाख्यान में, जो स्पष्टतया आदिरामायण पर निर्भर है, इस व्यापक प्रचार का प्रमाण मिलता है। हरिवंश के विष्णुपर्व से पता चलता है कि रामायण के कथानक को लेकर प्राचीनकाल में नाटकों का अभिनय भी हुआ करता था। ये नाटक अप्राप्य हैं, किंतु हरिवंश के इस उद्धरण से रामकथा की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई लोकप्रियतास्पष्ट है। उसी से रामावतार की भावना भी धीरे-धीरे दृढ़ होती गई। बौद्धों तथा जैनियों ने भी रामकथा को अपनाना प्रारंभ कर दिया। बौद्धों ने ईसवी सन के कई शताब्दियोंपहले राम को बोधिसत्त्व मानकर रामकथा को अपने जातक-साहित्य में स्थान दिया था।’
‘बौद्धों की अपेक्षा जैनियों ने बाद में रामकथा को अपनाया, लेकिन जैन साहित्य में इसकी लोकप्रियता शताब्दियों तक बनी रही, जिसके फलस्वरूप जैन कथा-ग्रंथों में एक अत्यंत विस्तृत रामकथा साहित्य पाया जाता है। इसमें राम, लक्ष्मण तथा रावण केवल जैन-धर्मावलंबी ही नहीं माने जाते, प्रत्युत उन्हें जैनियों के त्रिषष्टिमहापुरुषोंमें भी स्थान दिया गया है। इस प्रकार रामकथा भारतीय संस्कृति में इतने व्यापक रूप से फैल गई कि राम को उस समय के तीन प्रचलित धर्मों में एकनिश्चित स्थान प्राप्त हुआ। हिंदू धर्म में विष्णु के अवतार, बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व तथा जैन धर्म में आठवें बलदेव के रूप में श्रीराम को मानते हैं। इसी तरह संस्कृत धार्मिक साहित्य में, संस्कृत ललित साहित्य की प्रत्येक शाखा में, अन्य भारतीयभाषाओंके साहित्य में और भारत के निकटवर्तीदेशोंके साहित्य में भी रामकथा एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकी। इस अत्यंत विस्तृत रामकथा साहित्य से रामकथा की व्यापकता तथा लोकप्रियता का अनुमान किया जा सकता है।’
श्रीराम को पूर्णावतार मानते हैं। उनके जन्मस्थान की मुक्ति का सदियों पुरानाप्रश्न अब हल हो गया है। पुनः उपासना स्वातंत्र, सर्वपंथ समभाव और सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण जोशुरूहोगा, वह विराट अयोध्या से प्रेरणा प्राप्त कर सकेगा। उसका लक्ष्य रामराज्य होगा। जिसमें सुशासनकेआदर्शकीउंचाई होगी। ऐसे लक्ष्य का स्मरण कराना ही अयोध्या पर्व की सार्थकता है। इसकी पहल और योजना का श्रेय लोकसभा सदस्य और अयोध्या आंदोलन के एक स्तंभ लल्लू सिंह को है।