राजेन्द्र पाण्डेय

श्री हरि विष्णु ने रक्ष संस्कृति के विनाश के लिए अयोध्या में राजा दशरथ के यहां श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। यह अवातर त्रेता युग में हुआ था लेकिन इसके पहले भी श्री हरि के अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा ८४ कोस में लेने से जुड़े होने के संकेत हैं। वस्तुत: एक कल्प के घटनाक्रम को दूसरे से जोडऩाआसान नहीं होता है लेकिन आगे चलकर भगवान श्री हरि विष्णु ने प्रलय से सृष्टि की रक्षा करने के लिए पहला अवतार मत्स्य अवतार लिया था। स्कंद पुराण व रुद्रयामल ग्रंथ में कहा गया है कि अयोध्या सरयू तट पर मत्यस्याकार है। चर्चा यह भी आती है कि श्रीहरि विष्णु ने मनु को मत्स्य के रूप में यहीं पर दर्शन दिया था। अर्थात श्रीहरि विष्णु के प्रथम अवतार मत्स्य अवतार से अयोध्या का कोई सघन सीधा संबंध है? आखिर अयोध्या की भू-आकृति मछली सदृश्य रहने का रहस्य क्या है? यह गहरे मानस मंथन का विषय है। फिलहाल मत्स्याकृति अयोध्या का मध्य भाग सरयू की सहस्रधारा, मुंह का भाग गुप्तारघाट और पूंछ का भाग विल्वहरि घाट (दशरथ समाधि स्थल) आज भी मौजूद है।

मनु ने अयोध्या को ही राजधानी के रूप में प्रतिष्ठापित किया था। इससे यह संकेत अवश्य मिलता है कि प्रलय से सृष्टि रक्षा के लिए श्रीहरि विष्णु ने मनु की उस कश्ती को जिसमें सप्त ऋषियों के साथ जीव-जंतु, पेड़-पौधे सहित अन्य वस्तुएं थीं। उसे जिस ऊंचे स्थान पर टिकाया था, वह भी अयोध्या की इस ऊर्जा भूमि के आसपास ही था। प्रलय के बाद अयोध्या से ही मानव व मानव सभ्यता के विकास की बात पुराणों में कही गई है। इस दृष्टि से भी अयोध्या अलग-अलग मनुवंतरों में प्रमुख स्थान पर रही है।

श्री हरि विष्णु के १४ अवतारों की लीलाएं किसी एक लोक में नहीं हो रही थीं। ऐसा माना जाता है कि समय-समय पर पालनकर्ता श्री हरि विष्णु जहां जिस लोक में न्याय और धर्म की रक्षा की जरूरत होती थी, वहां वह अवतार लेते थे। मत्स्य अवतार के बाद देव और दानव के बीच धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने कूर्म अवतार लिया। समुद्र मंथन में निकले अमृत के जरिए दानव संस्कृति पर अंकुश लगाने और लोक कल्याण के लिए देवताओं को यह अमृत प्रदान कर अमर कर दिया। अब एक बार फिर तत्समय अयोध्या वाली ऊर्जा भूमि की ओर देखा जाए तो अपने तीसरे अवतार में माता पृथ्वी की रक्षा के लिए भगवान श्री हरि विष्णु ने वाराह अवतार लिया। दृष्टव्य साक्ष्यों पर गौर करें तो वाराह अवतार की लीला भूमि से मिलते-जुलते चिंह्न अयोध्या की ८४ कोस की सांस्कृतिक परिधि में है। श्रीहरि विष्णु के तीसरे अवतार के लीला स्थल का गोंडा जिले के वाराह क्षेत्र (सूकर क्षेत्र) से गहरे संबंध की ओर इशारा करता है। यह स्थल अयोध्या से सीधे लगभग ६० किलोमीटर उत्तर-पश्चिम गोंडा में स्थित है। रुद्रयामल ग्रंथ के साथ अयोध्या दर्पण के पृष्ठ ११९-१२० में वर्णन आता है कि वाराह क्षेत्र में ही श्री हरि विष्णु ने पृथ्वी का हरण करने वाले राक्षस हिरण्याक्ष का वध करके माता पृथ्वी को अपने स्थान पर अवस्थित किया था। प्रतीक के तौर पर सरयू और घाघरा के संगम स्थल पर मल्लान गांव (असवा गांव) आज भी विद्यमान है। जनश्रुति में इसे न केवल स्वीकार किया जा रहा है बल्कि तब से अब तक परंपरागत भगवान वाराह का यहां अवतार मानकर पूजन-अर्चन और दूसरे आयोजन सतत् होते आ रहे हैं।

काल परिवर्तन के साथ नारायण की लीलाएं चलती रहीं। समय बीतता रहा। धर्म की रक्षा और मानवता के कल्याण के लिए लीलाधर मायापति श्रीहरि विष्णु ने नरसिंह, वामन के अवतार धारण किए। इसके बाद एक बार फिर उन्होंने धर्म, शिक्षा और ऋषि, महर्षियों की रक्षा के लिए भगवान परशुराम के रूप में अवतार लिया। संकेत हैं कि भगवान परशुराम के अंशावतार की लीलाएं भी अयोध्या के साथ अन्य स्थानों से जुड़ी है? यद्यपि ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं मिलता लेकिन भगवान परशुराम के पिता महर्षि यमदग्नि के निवास स्थल की मान्यता जरूर इसे पुष्ट करती है। गोंडा जिले के जमथा गांव में ऋषि यमदग्नि का स्थान है। इसे उनकी तपस्थली के रूप में शाताब्दियों से पूजा जा रहा है। यह स्थल अयोध्या से लगभग ४० किलोमीटर दूर है। भगवान परशुराम ऋषि यमदग्नि के ही पुत्र थे, जिन्होंने विदेह राजा जनक के दरबार में सीता स्वयंवर में शिव धनुष के टूटने से क्रोधित होकर पहुंचे थे और लक्ष्मण के साथ गंभीर संवाद किया था। ८४ कोस की सांस्कृतिक परिधि में अयोध्या जिले के मिल्कीपुर तहसील आस्तीकन के पास ऋषि यमदग्नि का दूसरा स्थान भी है। ऋषि यमदग्नि स्थल का दृश्य ऐसा है कि यहां खुदाई होने पर पुरातात्विक दृष्टि से किसी सभ्यता के अवशेष मिलने की संभावना है। ऋषि यमदग्नि के दोनों स्थलों की मौजूदगी और उनके पुत्र भगवान परशुराम का अयोध्या की इस भूमि से क्या संबंध रहा है? यह शोध व चिंतन का विषय है।

अयोध्या में श्रीराम के अवतार के पूर्व श्रीहरि के एक अन्य अवतार से जुड़े होने का भी संकेत है। रुद्रयामल ग्रंथ और अयोध्या दर्पण में अयोध्या में श्रीकपिल मुनि का वर्णन आता है। श्रीकपिल मुनि को श्रीहरि विष्णु का पांचवां अवतार माना जाता है। कपिल मुनि का यह स्थान अयोध्या से लगभग १५ किलोमीटर दूर गोंडा जिले के नवाबगंज बाजार के पास महंगूपुर गांव में स्थित है। गांव के लोग श्रीकपिल मुनि की तपस्थली मान कर पूजन-अर्चन और आयोजन करते हैं। अयोध्या से कपिल मुनि के अवतार का जुड़ाव रहा है? यह खोज का विषय जरूर है।

त्रेतायुग में श्री हरि विष्णु का रामावतार सर्वविदित है। लंकाधिपति रावण के आतंक से ऋषि, महर्षियों व मानव कल्याण के लिए श्रीराम के रूप में अयोध्या में राजा दशरथ के पुत्र के रूप में अवतार लिया। श्रीराम के जन्म के कालखंड को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। यह तो सभी मानते हैं कि श्रीराम का जन्म त्रेतायुग में हुआ था लेकिन उनके जन्म को लेकर मानव वर्ष की गणना में भिन्नताएं हैं। फिर भी हरिवंश पुराण, वायु पुराण आदि के मुताबिक रामावतार वर्तमान वर्ष तक लगभग १८१६०१०८ ( एक करोड़ ८१ लाख ६० हजार १०८ वर्ष) पूर्व हुआ था। हालांकि एक अन्य धारणा में रामावतार को हुए अभी इतना समय नहीं माना जाता।

अयोध्या में रामावतार को त्रेतायुग के उत्तराद्र्ध का कालक्रम माना जाता है। इस समय जंबू द्वीप के अधिपति वैवस्वत मनु थे। वायु पुराण के मुताबिक वैवस्वत मनु के अधिपतित्व में ही जो वंश परंपरा शुरू हुई श्रीराम उसी वंश परंपरा की पीढ़ी में आते हैं। ऐसा माना जाता है कि श्रीराम के अवतार लेने के पूर्व वैवस्वत मनु के वंशज महाराज सगर के पुत्रों ने नए सिरे से सागर की रचना के लिए खुदाई करवाई थी। श्रीमद् भागवत् के मुताबिक इस खुदाई का परिणाम यह रहा कि वैवस्वत मनु के पहले एक मात्र द्वीप जंबू द्वीप आठ द्वीपों में विभाजित हो गया। इनमें स्वर्णप्रस्थ, चंद्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मंदरहरिण, पांच्चजन्य, सिंघल, लंका शामिल हैं। अतीत में अयोध्या जंबू द्वीप की राजधानी रही है। अयोध्या की ८४ कोसी परिक्रमा में पडऩे वाले जंबू तीर्थ का जंबू द्वीप से कोई संबंध तो नहीं है? रुद्रयामल ग्रंथ और अयोध्या दर्पण में जंबू तीर्थ का विवेचन मिलता है। भगवान शिव ने पार्वती को जंबू तीर्थ के महात्म्य को लेकर बताया था कि वाराह तीर्थ से पश्चिम दिशा में संपूर्ण कामनाओं की सिद्धी देने वाला पवित्र जंबू तीर्थ है। जंबू तीर्थ दो महान ऋषियों ऋषि अगस्त्य व ऋषि तुंदिल के ध्यान और तप की भूमि होना भी इस स्थान के छिपे गुह्य रहस्य की ओर इशारा करता है। यह स्थान भी सरयू के ही तट पर है। जंबू तीर्थ, जंबू द्वीप में क्या समानता है? क्या दोनों विविध कालावधि में एक ही थे? यह चिंतन का विषय है।

श्रीहरि विष्णु के १७वें अवतार वेद व्यास का अयोध्या से सीधा संबंध है? तथ्य और परिस्थितियां इस ओर इशारा कर रही हैं। वेद व्यास के पिता ऋषि पाराशर के एक-एक स्थल सरयू के उत्तर-दक्षिण सरयू के किनारे ८४ कोस की परिधि के भीतर हैं। अयोध्या की तहसील सोहावल के देवराकोट गांव में और गोंडा जिले के तरबगंज तहसील में परास गांव में ऋषि पाराशर के स्थल हैं। परास गांंव का नाम भी ऋषि पाराशर के नाम पर ही लोक मान्यता में है। इनमें से देवराकोट के पाराशर ऋषि के स्थल को उनकी जन्मस्थली की लोक मान्यता है, जबकि गोंडा के परास गांव में उनके स्थल को तपस्थली के रूप में माना जाता है। बताना उचित होगा कि ग्रंथों में ऋषि पाराशर को महर्षि वशिष्ठ का पौत्र बताया गया है। इससे यह संकेत अवश्य मिलता है कि भगवान वेद व्यास का जुड़ाव ऋषि पाराशर के जरिए अयोध्या की इस भूमि से है?

इन तथ्यों से अयोध्या के सृजन के समय भगवान विष्णु से कहे गए उन वाक्यों से मिलता है, जब आदि मनु स्वायम्भुव को लेकर ब्रह्मा जी पृथ्वी पर स्वायम्भुव मनु को रहने के स्थान की याचना करने गए थे। भगवान विष्णु ने विष्णु लोक के साकेत धाम जैसा स्थल पृथ्वी पर प्रदान करने के साथ यह भी कहा था कि जो भूमि उनके लीला विहार के लिए समुचित हो वहां ही इस अवध की स्थापना करवाईए। इससे संकेत है कि श्रीराम के उनके अवतारों के अलावा भी श्रीहरि के दूसरे अवतारों का अयोध्या से संबंध हो सकता है।

अयोध्या अद्भुत है। श्रीहरि विष्णु के लीला विहार की पृष्ठभूमि में अवतार के लिए जिस ऊर्जा की चर्चा आई है। उसके स्रोत का संबंध अयोध्या से है? अयोध्या की रुदौली तहसील के कामाख्या भवानी मंदिर को भगवती पारम्बा का अवतरण स्थल यदि माना जाए। जैसी कि लोक मान्यता है। वैवस्वत मनु के पहले ही किसी कालखंड में यहां भगवती का अवतरण हुआ था। मार्कण्डेय पुराण से ली गई श्रीदुर्गा सप्तशती के पहले अध्याय में मार्कण्डेय जी ने सूर्य के पूत्र सावर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं। उनकी उत्पत्ति की कथा विस्तारपूर्वक कही है। दूसरे श्लोक में कहा है कि-

सावर्णि: सूर्यतनयो यो मनु: कथ्येष्टम:।

निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद गदतो मम।।

फिर उन्होंने चौथे श्लोक में कहा है कि-

स्वारोचिषेन्तरे पूर्व चैत्रवंशसमुद्भव:।

सुरथो नाम राजाभूत्स्मस्ते क्षितिमण्डले।।

बताया है कि सृष्टि के दूसरे मनु स्वारोचिष मनुवंतर में सुरथ नाम के राजा हुए थे, जो चैत्र वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था। जिन्हें ऋषि विप्रवर मेधा ने भगवती पारम्बा की तपस्या का निर्देश दिया था। गोमती नदी तट स्थित वर्तमान कामाख्या भवानी मंदिर के स्थल पर भगवती ने सुरथ को वर प्रदान किया।

श्रीदुर्गा सप्तशती के तेरहवें अध्याय के श्लोक-१९ से २५ तक भगवती पारम्बा से स्वयं राजा सुरथ को वर प्रदान किए जाने की कथा है। कहा गया है कि-

देव्युवाच।

स्वलपैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्सते भवान्।

हत्या रिपपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति।

मृतŸच भूय: समप्राप्य जन्मदेवाद्विस्वत:।

सावर्णिको नाम मनुर्भवान ् भुवि भविष्यति।

वैश्ववर्य त्वया यश्च वरोअस्मत्तोभिवाच्छित:।

तं प्रयच्छामि संसिद्धयै तव ज्ञानं भविष्यति।

अर्थात देवी बोलीं, राजन! तुम थोड़े ही दिनों में शत्रुओं को मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लोगे। अब वहां तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा। फिर मृत्यु के पश्चात तुम भगवान विवस्वानु (सूर्य) के अंश से जन्म लेकर इस पृथ्वी पर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात होगे। वैश्यवर्य! तुमने भी जिस वर को मुझसे प्राप्त करने की इच्छा की है। उसे देती हूं। तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान प्राप्त होगा।

फिर मार्कंण्डेय जी कहते हैं कि-

एवं देव्या वरं लब्धवा सुरथ: क्षत्रियर्षभ:।

सूर्याज्जन्म समासाद्यय सावर्णिर्भविता मनु:।। क्लीं ऊं।।

मार्कण्डेय जी कहते हैं कि इस तरह से देवी से वरदान प्राप्त कर क्षत्रियों में श्रेष्ठ सुरथ सूर्य से जन्म ले सावर्णिक मनु होंगे। सावर्णिक, मनुओं की श्रंखला में आठवें नंबर पर आते हैं। वर्तमान में वैवस्वत मनु का कार्यकाल है। यह सातवें मनु हैं। अर्थात अब से लाखों मानव वर्ष पहले भगवती पारम्बा ने अयोध्या में ऊर्जा की अजस्र धारा को प्रवाहित कर दिया था। कालखंड का निर्धारण तो नहीं किया जा सकता लेकिन भगवती पारम्बा के वर प्रदान के बाद ऋषि मार्कण्डेय ने आठवें मनु सावर्णिक के उत्पन्न होने का मार्गदर्शन किया। भगवती पारम्बा का लीला स्थल भी अयोध्या अर्थात अवध की इसी भूमि से जुड़ा माना जाता है।