मंदिर निर्माण के लिए महंत अवैद्यनाथ ने जब चलाया पहला फावड़ा – अयोध्या के योद्धा
अयोध्या आंदोलन के पक्ष अनेक हैं। अनंत हैं। आंदोलन की पूर्णाहुति के पश्चात इस पर ध्यान दिया जाने लगा है। लेकिन जब कभी इसका अध्ययन होगा और जानने का प्रयास होगा कि आंदोलन की पूर्णाहुति से पहले ही उसके सृजन पक्ष को केंद्र में रखकर पहली पहल किसने की और कब की, उसका स्वरूप क्या था? इसका उत्तर पाने के लिए हमें अयोध्या आंदोलन के योध्याओं को जानना समझना पड़ेगा। उसी कड़ी में हमें महंत अवैद्यनाथ को जानना समझना पडेगा। महंत अवैद्यनाथ अयोध्या आंदोलन के आधार थे। उस आधार स्तंभ की गवाही कदम दर कदम दर्ज है
बात 9 नवंबर, 1989 की है। शिलान्यास की तारीख निश्चित हुई थी। शिलान्यास प्रस्तावित मंदिर के सिंहद्वार पर हुआ। उसकी नींव की खुदाई के लिए पहला फावड़ा महंत अवेद्यनाथ ने चलाया। इसे समझने के लिए पहली धर्मसंसद का रख करना पड़ेगा। तारीख थी सात अप्रेल 1984, पहली धर्मसंसद। विज्ञान भवन नई दिल्ली में आयोजित इस पहली धर्मसंसद में रामजन्मभूमि यज्ञ समिति बनी। धर्मसंसद में प्रस्ताव पारित होने के बाद महंत अवेद्यनाथ समिति के पहले अध्यक्ष बनाए गए।
जब यह निर्णय हुआ तो महंत अवेद्यनाथ वहां मौजूद नहीं थे। उन्हें टेलिफोन के माध्यम से निर्णय की सूचना दी गई और उनसे अनुमति प्राप्त की गई। इस तरह अवेद्यनाथ के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी आई। विवाद के हल के लिए सरकारों से सबसे ज्यादा बातचीत करने वालों में वे एक रहे। अवेद्यनाथ का संबंध गोरक्षपीठ से था। वैसे तो गोरक्षपीठ की पहचान सामाजिक आंदोलन को नेतृत्व और दिशा देने की है। संस्कृति वाहक की है। लेकिन, बीसवीं शताब्दी के मध्य आते-आते गोरक्षपीठ राजनीति को भी रास्ता दिखाने लगी थी। महंत दिग्विजयनाथ के बाद अवेद्यनाथ ने जिम्मेदारी संभाली थी। 19 फरवरी, 1980 की घटना ने अवेद्यनाथ को अंदर से हिलाकर रख दिया था। वे व्यथित हुए। घटना मीनाक्षीपुरम की थी। वहां एक बड़ा धर्मांतरण हुआ था। महंत अवेद्यनाथ ने घटना पर कठोर शब्दों में आपत्ति दर्ज कराई और विरोध में ‘धर्मान्तरण नहीं राष्ट्रान्तरण’ का अभियान शुरू किया था। अवसर आया तो उन्होंने अयोध्या आंदोलन को भी सफल नेतृत्व दिया।
जब अयोध्या आंदोलन जोर पकड़ने लगा तो राजनीतिक लाभ-हानी देखते हुए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अवेद्यनाथ से संबंध जोड़ा। इसकी जिम्मेदारी उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को दी। वीर बहादुर सिंह ने उनसे गोपनीय मीटिंग की और भव्य राममंदिर के राजीव मॉडल का खुलासा किया। लेकिन, कुछ कारणों से बात आगे नहीं बढ़ पाई। हालांकि, विहिप ने अभियान तेज करने की बात कही तो राजीव गांधी के निर्देश पर राम जन्मभूमि का ताला खोलने का रास्ता निकाला गया। इसकी सूचना अवेद्यनाथ के जरिए ही विहिप को दी गई।
लंबे संघर्ष के बाद जब राममंदिर के शिलान्यास की बात प्रारंभ हुई तो अवेद्यनाथ महत्वपूर्ण कड़ी के तौर पर उससे जुड़े थे। आखिरकार 9 नवंबर, 1989 को शिलान्यास की तारीख निश्चित हुई। शिलान्यास प्रस्तावित मंदिर के सिंहद्वार पर हुआ और उसकी नींव की खुदाई के लिए पहला फावड़ा महंत अवेद्यनाथ ने चलाया। एक समय ऐसा भी आया, जब कांची शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने अयोध्या आंदोलन के लिए महंत अवेद्यनाथ को सरकार से बातचीत करने के लिए अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया। लेकिन, वीपी सिंह और मुलायम सिंह यादव की राजनीति में कोई परिणाम नहीं निकल पा रहा था। कारसेवा को लेकर गतिरोध पैदा हुआ तो वीपी सिंह के आग्रह पर महंत अवेद्यनाथ ने ही रास्ता निकाला और सरकार को करीब 120 दिनों का समय मिला। अयोध्या आंदोलन के दौरान सरकार से बातचीत करने वालों में वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे।
महंत अवेद्यनाथ के चंद्रशेखर और विश्वनाथ प्रताप सिंह से करीबी रिश्ते थे। वे संसद में गोरखपुर की जनता का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे। वे पांच बार लोकसभा के सदस्य रहे। उत्तराखंड के पौढ़ी जिले में जनमे कृपाल सिंह बिष्ठ 1940 में अवेद्यनाथ बन गए। फिर 1942 में दिग्विजय नाथ के उत्तराधिकारी नियुक्त हुए। 1969 में दिग्विजय नाथ की मृत्यु के बाद वे नाथपंथी की शीर्ष गद्दी गोरक्षनाथ पीठ पर बैठे। 6 दिसंबर, 1992 के ध्वंस के मुख्य आरोपियों में महंत अवेद्यनाथ भी रहे। स्मरण रहे कि चौथी लोकसभा में हिंदू महासभा के टिकट पर वे पहली बार लोकसभा में चुने गए। उसके बाद तीन बार लगातार यहीं से सांसद रहे।