महर्षि ने कराया दो राजवंशों का मिलन – अहो! अयोध्या
श्री राम और लक्ष्मण की जनकपुर यात्रा ने अयोध्या और मिथिला की संस्कृतियों को एकाकार करने में महती भूमिका निभाई। दोनों राज्यों के बीच पडऩे वाले क्षेत्र भय मुक्त हुए। सरोकारों की नई परिभाषा गढ़ी गई। महर्षि विश्वामित्र के साथ अयोध्या से जनकपुर की यात्रा में उन्होंने यूपी के अयोध्या से अंबेडकरनगर, आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, बलिया पहुंचे। यहां से गंगा नदी पार कर विहार के बक्सर, पटना, वैशाली, हाजीपुर, दरभंगा, मधुबनी, पूर्वी चंपारन होते हुए नेपाल के जनकपुर पहुंचे थे। इस दौरान उन्होंने विभिन्न स्थलों पर राक्षसों का संहार किया। जनकपुर में सीता स्वयंवर में शिव का पिनाक धनुष को भंग कर सीता का पाणिग्रहण किया।
अयोध्या २५ किमी. दूर श्रृगी ऋषि आश्रम मे राम ने बला और अतिबला की शिक्षा पाई। गाजीपुर में सिदागर घाट पर ऋषियों से मुलाकात की। बलिया में सरयू तट स्थित बैजल लखनेश्वर डीह में लक्ष्मण ने शिव मंदिर की स्थापना की थी। यहां से कुछ ही दूरी पर स्थित गंगा-सरयू संगम पहुंचे जिसे वर्तमान समय में रामघाट कहते है। बलिया के कोरा में भगवान शिव ने काम को भस्म किया था। इसे कामेश्वरनाथ के नाम से जाना जाता है। यहां भी श्रीराम पहुंचे थे। चितबड़ागांव के पास जंगल में एक बड़ा टीला है। लोक मान्यता है कि यह राक्षस सुबाहु का घर था। श्रीराम ने यहीं पर सुबाहु का वध किया था। सुबाहु से मिलता जुलता स्थाना यहां पर सुजायत है। इसके आगे भरोली और उजियार है जिसके बारे में मान्यता है कि ऋषि विश्वामित्र ने यहीं पर श्रीराम को जगाया था और राम ने आगे गंगा जी के किनारे स्थित ताडक़ा वन में ताडक़ा का वध किया था। इसे अब चरित्र वन कहते है।
बक्सर जिले के वामनेश्वर मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि वामन अवतार लेने के पहले भगवान विष्णु ने यहां पर शिव की आराधना की थी। श्रीराम यहां भी पहुंचे थे। इसके आगे गंगा जी के तट पर सिद्धाश्रम है जिसे प्राचीन काल से ही विश्वामित्र जी का आश्रम कहा जाता रहा है। ताडक़ा वध के बाद जिस स्थान पर श्री राम ने स्नान किया, उसे रामरेखा घाट कहते है। यहीं पास में उन्होंने स्त्री हत्या से मन में उपजे क्लांत भाव को समाप्त करने के लिए भगवान शिव की आराधना की थी जिसे अब रामेश्वरनाथ के नाम से जाना जाता है। बक्सर में अहिरौली को अहिल्या स्थल के रूप में माना जाता है, जहां श्री राम ने अहिल्या का उद्धार किया था। यात्रा में उन्होंने जहां अगला पड़ाव डाला था, उस स्थान को पटना जिले में परेव के नाम से जाना जाता है। लोक मान्यता है कि वैशाली जिले में गंगा तट पर श्री राम ने विश्राम किया था और उसी जगह पर रामचौरा मंदिर स्थित है। दरभंगा जिले में भी अहिल्या आश्रम है। यहां पर कई ऋषियों याज्ञवल्क्य, श्रृंगी, भृंगी, गौतम आदि के आश्रम थे। यहां से श्रीराम जनक जी के उपवन में पहुंचे। यह स्थान मधुबनी में है जिसे विश्वामित्र का आश्रम कहते है। मधुबनी का फुलहर गांव वह स्थान है जहां सीता जी ने गिरिजा का पूजन किया था। इसे बाग तड़ाग के नाम से जाता है, जहां पर गिरिजा मंदिर भी है। बाबा तुलसी ने लिखा है ‘बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरत मुस्कानी’।
यहां से कुछ दूर बसहिया स्थान है, जहां के बांसों से स्वयंवर के दौरान जनकपुर में विवाह मंडप बनाया गया था। आज भी यहां बांसों की बहुलता है। दूधमती नदी को पार करते हुए श्रीराम नेपाल के जानकी मंदिर पहुंचे थे। यहां अब भी श्रीराम का दूल्हा के रूप में ही पूजन होता है। यहां से थोड़ी दूर पर ही वह स्थान है जहां पर श्रीराम ने सीता स्वयंवर में पिनाक धनुष को तोड़ा था। रामचरित मानस में इस स्थान को रंगभूमि कहा गया है। धनुष टूटने से उसके अवशेष जहां गिरे थे, उसे धनुषा मंदिर के नाम से जाना जाता है। जिस स्थान पर श्रीराम और सीता का विवाह हुआ, उसे अब लक्ष्मीनारायन मंदिर के नाम से जाना जाता है। लोक परंपरा में आज भी लोग विवाह के अवसर पर वेदी की माटी के लिए यहां से मिट्टी ले जाते है। उस स्थान को मटियानी कहा जाता है। यही के रानी बाजार में मणिमंडप है, जहां श्रीराम सहित अन्य के पैर धोए गए थे। विवाह परंपरा में दहेज देखाई की रस्म है। श्रीराम के विवाह में दहेज के रूप में जो कुछ मिला था, उसकी देखाई स्थल को रत्न सागर के नाम से जाना जाता है। विद्या कुंड यहां का वह स्थल है, जहां विवाह के बाद आमोद-प्रमोद व जल क्रीड़ा हुई थी। सीता का प्रकटीकरण जिस खेत में हुआ था, वह सीतामढी में स्थित है। यह तपोवन क्षेत्र था। यहां पुंडरीक, श्रृंगी, कपिल, खरक, आदि ऋषि यहीं पर तपस्या करते थे, जिसके बारे में स्थानीय मान्यता है कि रावण ने ऋषियों के रक्त से भरा कुंभ यहीं भूमि में गड़वाया था। ऋषियों के इसी रक्त से उसके विनाश के लिए भगवती सीता कन्या के रूप में प्रकट हुई थी।
रामायण काल में वहां यह मान्यता थी कि स्वयंवर के चौथे दिन वेदी बनाकर एक बार फिर विवाह की रस्म पूरी की जाती थी। दोबारा जिस स्थान पर वेदी बनाकर विवाह हुआ था, वह स्थल पूर्वी चंपारन में वेदी वन के रूप में प्रसिद्ध है। इसके बाद श्रीराम की बारात वापस अयोध्या के लिए लौटी थी। बारात जिस मार्ग से आई थी, उसे राम जानकी मार्ग के नाम से जाना जाता है। इसी मार्ग पर गोरखपुर में डेरवा स्थान को बारात का विश्राम स्थल माना जाता है। रास्ते में भगवान परशुराम दोहरी घाट में श्रीराम से मिले थे। इसके बाद बारात अयोध्या के लिए निकली तो बस्ती जिले अमोढ़ा गांव के पास स्थित राम रेखा स्थान पर पड़ाव डालने की मान्यता है। यहां पर बारातियों की प्यास बुझाने के लिए श्रीराम ने अपने बाण से रेखा खींच पानी की व्यवस्था की थी। राम रेखा नदी की उत्पत्ति के पीछे स्थानीय स्तर पर यहीं मान्यता है। यहां एक मंदिर भी है। इसके बाद बारात वापस अयोध्या पहुंच गई।
संदर्भ:-श्रीराम की अयोध्या से दक्षिण रामेश्वरम तक और अयोध्या से जनकपुर तक के भ्रमण का यह भाग वाल्मीकि रामायण के आधार पर अयोध्या शोध संस्थान की प्रवेशांक पत्रिका ‘साक्षी’ और श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान न्यास से प्रकाशित ‘जहं-जहं चरण पड़े रघुवर के’ से सहयोग लिया गया है।