अयोध्या की ऋषि परंपरा
अतीत की अयोध्या से शुरू हुई धर्म, संस्कृति और अध्यात्म की त्रिवेणी वर्तमान तक बह रही है। यह धारा कभी तेज तो कभी धीमी हो जाती है लेकिन बहने का सातत्य बना हुआ है। आधुनिक समय की अयोध्या भी इसको समेटे हुए है। यह अलग बात है कि भौतिकता से आबद्ध समाज में यह आसानी से दिखाई नहीं पड़ती है। गहरे से झांक कर देखे तो यहां की संत परंपरा पहले की ही तरह समाज निर्माण, संस्कार सृजन के साथ अध्यात्म के प्रति लोगों को प्रेरित करने के अपने पुराने ढर्रे पर है। अयोध्या से नि:सृत सतनाम पंथ देश के काफी हिस्सों तक फैला। सतनाम पंथ के अनुयाई अजपा जप करते है। इस जप के मूल में राम होते है लेकिन जब उच्चारण करते है तो सत्यनाम बोलते है।
अयोध्या अद्भुत है। यहां संतों की पंरपरा भी विराट है, जो अलग-अलग स्थानों पर भले रहते है लेकिन उनके उद्देश्यों में समानता दिखाई पड़ती है। संत परंपरा में अपने बारे में बहुत कुछ लिखने से परहेज किया जाता रहा है। इसलिए कई संत ऐसे है जिनके काल निर्धारण में दिक्कते महसूस होती है। बाद में भक्तों ने संतों के बारे में जो कुछ लिखा, उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। फिर भी बड़ी अयोध्या में योग, ध्यान, वैराग्य, तप, साधना, भक्ति घुली मिली हुई है। गुरू से प्रदत्त आर्शीवाद के जरिए संत, समाज को नया मार्ग दिखाने में लगे है। ऐसे संतों की लंबी श्रंृखला में से कुछ के बारे में जो कुछ जानकारी मिली, उसे आपके सामने लाने की कोशिश कर रहे है। इनके अलावा भी बहुत से ऐसे संत इस परंपरा में रहे है जिन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया है। समय समय पर समाज का पुनर्जागरण करने वाले कुछ संतों के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने की कोशिश की गई।
संत गोविंद साहब
अंबेडकरनगर जिले के नग जलालपुर के साहबतार गांव में १७१५ ईसवी में पृथुधर व दुलारी देवी के यहां गोविंदधर का जन्म हुआ, जो बाद में गोविंद साहव के नाम से ख्यातिलब्ध संत हुए। गोविंद साहब के दीक्षा गुरू गाजीपुर जिले के भुरकुड़ा आश्रम के संत भीखा साहब थे। भुरकुड़ा आश्रम में कुछ वर्षों तक साधना का जीवन व्यतीत कर गोविंद साहब अंबेडकरनगर व आजमगढ़ की संधिस्थल पर स्थित अहिरौली जंगल में साधना की धूनी रमाई। अहिरौली जंगल को अब गोविंद साहब के नाम से जाना जाता है। यहीं पर गोविंद साहब अंतिम समय तक रहे। इनके मुख्य १२ शिष्य माने जाते हैं। इनमें संत पलटू दास, गोविंद दयाल, अवध दास, थान दास, खडग़ दास, मोती दास, रामचरण दास, कृपा दास, बांकेबिहारी दास, इच्छा दास, घनश्याम दास, बेनी दास प्रमुख हैं। गोविंद साहब की सृजनात्मक साधना सत्यसार, सत्यटेर, गोविंद योग भास्कर, अलिफनामा, पहाड़ा, रामगुज और ज्ञान तोप आदि किताबों के रूप में अभिव्यक्त हुई है। अपने साहित्य में इन्होंने अपने आराध्य को कई नामों से पुकारा है, जिनमें प्रमुख नाम राम जगदीश, ओंकार, सारंगपाण, हरि, निरंजन और सत्य आदि है। लगभग १०० वर्ष तक वह जीवित रहे। गोविंद साहब स्थान के भक्त सत्यनाम दास ने कहा कि यहां पर साहब की समाधि है। अगहन शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक गोविंद दशमी का बड़ा मेला लगता है। आप देख ही रहे हैं कि मेला तो लगभग खत्म हो गया है लेकिन अभी भी श्रद्धालु यहां पर मत्था टेकने और प्रसाद के रूप में खिचड़ी लेने के लिए आ रहे हैं। गोविंद साहब के वंशज बढया व कोटियवा में आज भी रहते हैं। यहीं पर खिचड़ी प्रसाद लेते हुए मिले प्रतापपुर गांव के रामभवन मिश्र व फत्तेपुर के नवलबिहारी सिंह ने कहा कि गोविंद बाबा की ऐसी कृपा है कि बखार (अन्न भंडार) में खिचड़ी डाल देने से साल भर खाद्यान्न में अन्न की कमी कभी नहीं आती।
शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती
अंबेडकरनगर के मालीपुर के पास सुरहुरपुर ग्राम में शिवबोध मिश्र एवं रामरजी के आंगन में २१ दिसंबर १८७० को रामराज के रूप में अध्यात्म की ज्योति प्रकट हुई, जो भविष्य में ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के रूप में दिगदिगंत तक भाषित हुई। बाल्यकाल में ही रामराज अध्यात्म की ओर उन्मुख हो गए और वे काशी पहुंच गए। काशी में भी उनके कदम ठहरे नहीं। वह हिमालय की ओर ऋषिकेश व हरिद्वार में कुछ वर्षों तक साधना और तप में रमे रहे। हरिद्वार के स्वामी कृष्णानंद सरस्वती को उन्होंने अपना गुरु मान लिया। ३५ वर्ष की अवस्था में उन्होंने विधिवत सन्यास की दीक्षा प्राप्त की। इसी के बाद वह स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के रूप में नई पहचान बनी। वर्ष १९४१ में बद्रिकाश्रम पीठ ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य बने। इनके प्रमुख शिष्यों में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, स्वामी हरिहरानंद सरस्वती और स्वामी शांतानंद सरस्वती तथा महेश योगी आदि प्रमुख थे। महर्षि महेश योगी को उनके गुरू ने ने ही संतों की घाटी के रूप में ख्याति ऋषिकेश में साधना करने की सलाह दी थी। उसी के बाद महर्षि महेश योगी विदेश चले गए, जहां पर उन्होंने भारतीय संस्कृति की ध्वज पताका लहराई। गौरतलब है कि महर्षि महेश योगी अपने गुरु भूमि पर गुरु की याद में एक भव्य मंदिर बनवाना चाहते थे। इसके लिए वे सुरहुरपुर में आए और इस बाबत निर्माण कार्य के लिए शिलान्यास भी किया लेकिन उनकी यह कामना पूरी नहीं हो सकी। महर्षि महेश योगी और उनके गुरु दोनों खुले आसमान के नीचे विराजमान हैं। स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती २० मई १९५३ को अनंत में ब्रह्मलीन हो गए।
संत पलटू दास
संत पलटू साहब का जन्म नग जलालपुर के छांछू मोहल्ले में एक बड़े परिवार में हुआ। इनके शिष्य हुलास दास के ग्रंथ ब्रह्म विलास में इनका जन्म हुआ। गोविंद साहब ने इनमें पल-पल पर अजपा जाप में रम जाने की प्रवृत्ति को देखकर इन्हें पलटू कहना शुरू कर दिया। छाछू मोहल्ले में इनका जन्म स्थान वर्तमान में मंदिर की शक्ल में स्थित है। मंदिर के शिष्य गोंडा जिले के निवासी महेश ने बताया कि मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत राम प्रसाद दास हैं। हालांकि महंत जी के अन्य क्षेत्रों में प्रवास के कारण वार्ता नहीं हो सकी। वर्ष २०१४ में बिहार से आए गोविंद साहब व पलटू साहब के एक भक्त को लेकर जब पलटू मंदिर गया तो उनसे संबंधित वहां पर कोई भी साहित्य मौजूद नहीं मिला। यही हाल वर्ष २०२० में भी है। जबकि पलटू दास की बानी को विलवेडियर प्रेस इलाहाबाद ने बहुत पहले प्रकाशित किया था, जो कि तीन खंडों में है। इसका तीसरा खंड पलटू दास की गुरू भूमि गोविंद साहब मंदिर में स्थान के भक्त सत्यनाम दास ने उलब्ध कराया। गौरतलब है कि पलटू दास की बानी में आध्यात्मिकता इतने उच्च स्तर की है कि आचार्य रजनीश ओशो ने भी उन पर कई दिनों तक प्रवचन किया, जो अजहू चेत गंवार, दीपक बारा नाम का आदि पुस्तकों के रूप में मौजूद है। सत्यनाम दास ने बताया कि गुरु व शिष्य अहिरौली में रहते थे लेकिन बाद में शिष्य पलटू दास अयोध्या चले गए। अयोध्या में ही रामकोट क्षेत्र में उनकी समाधि स्थित है। अयोध्या से लगभग २५ किलोमीटर दूर मोकलपुर गांव का भी रिश्ता संत पलटू दास जी से रहा है। यहां पर उनका मंदिर, सरोवर व अन्य स्थल हैं।
संत जगजीवन दास
सत्यनामी पंथ के प्रवर्तक स्वामी जगजीवन दास का जन्म बाराबंकी जिले के सरदहा गांव में लगभग १६७० ईसवी में गंगाराम एवं कमला देवी के घर हुआ था। जगजीवन दास जी के गुरु श्रीविश्वेशरपुरी जी थे, जो गोंडा जिले के गुरसड़ी के रहने वाले थे।
विश्वेसरपुरी गुरु गुरसड़ी, तहां समाधि स्थान।
मते मंत्र मोह दीन्ह उन्ह, लाग्यो अंतर ध्यान।.
जगजीवन साहब गृहस्थ संत थे। इनकी पत्नी मोतिन कुंवरि बाराबंकी जिले के गाजीपुर गांव की थीं। जगजीवन साहब सरदहा से बाराबंकी के कोटिक वन में अखंड साधना की। यहीं पर इनकी समाधि भी है। कोटिक वन को कोटवा धाम के रूप में प्रतिष्ठा है। सत्यनाम पंथ के माध्यम से जगजीवन साहब ने नाम सुमिरन को बल देते हुए अपनी वाणी के माध्यम से लोगों को जागरूक किया। इनके प्रमुख चार शिष्य जिन्हें पावा व वजीर कहते हैं। १४ गद्दीधर शिष्य, ३६ पंथ प्रचारक एवं उपदेशक महंत तथा ३३ सुमिरनकर्ता शिष्य थे। इस प्रकार जगजीवन साहब के ८७ शिष्यों का संगठन अस्तित्व में आया। स्वामी जी की शब्द वाणी को उनके शिष्यों ने तत्कालीन प्रचलित भाषा लिपि में ग्रंथ रूप प्रदान किया, जिनकी संख्या १८ है। इनमें अघ विनाश, शब्द सागर, शब्द लीला, दोहावली, परम ग्रंथ, मनपूरन, ज्ञान प्रगास, महाप्रलै,बुद्धि, वृद्धि, दिढ़ ज्ञान, विवेक ज्ञान व उग्र ज्ञान. चरन बंदगी व शरन बंदगी, विवेक मंत्र व अघोर मंत्र, सन्यास योग, स्तुति महावीर जी की, बारहमासा, ककहरा नामा, छन्द विनती हैं। जगजीवन साहब के वंश परंपरा के नीलेंद्र बख्श दास ने कहा कि जगजीवन साहब के आगमन को लगभग ३५० वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर कोटवा धाम में समूचे देश के तकरीबन ५० हजार सतनामी भक्तों का भव्य कार्यक्रम आयोजित हो रहा है, जिसकी तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ के सतनामियों का यहां से गहरा रिश्ता रहा होगा, क्योंकि गुरु घासीदास की प्रार्थना में अवधी का एक गीत शामिल है। कहा कि ऐसी मान्यता है कि जगजीवन साहब के शिष्य दूलन दास पुरी जा रहे थे। रास्ते में ही दूलनदास की मुलाकात घासी दास से हुई थी। सिद्ध संत परमहंस राममंगल दास की पुस्तक ‘भक्त भगवंत चरितावली एवं चरितामृत’ में कहा गया है कि संत जगजीवन दास के घराने में १६४ सिद्ध संत हुए।
सिद्ध संत राममंगल दास जी
अयोध्या के सिद्ध संतों में शुमार संत राममंगल दास का जन्म सीतापुर जिले के सिद्धौली तहसील में १२ फरवरी १८९३ को हुआ था। बाल्यकाल से ही धर्मानुरागी संत राममंगल दास अयोध्या आए तो रामघाट पर स्थित एक बरगद के वृक्ष के नीचे अपनी धूनी रमाई। यहीं पर गुुरु नानकदेव जी ने उन्हें दर्शन दिया था। उसके पश्चात उन्होंने रामजन्मभूमि के ठीक पीछे अपना आश्रम बनाया। वर्तमान में जिसकी गोकुल भवन के रूप में श्रद्धालु भक्तों में खासी पहचान है। वर्ष १९८४ में गोकुल भवन में दीक्षित हुए डा. शैलेंद्र विक्रम सिंह कहते हैं कि गुरुदेव के ध्यान में सभी धर्मों के भगवान नाना रूपों में, सभी देवी-देवता, सभी धर्म प्रवर्तक, सभी संत, ध्यान में आए और उन्होंने पद लिखवाया। एक दौर ऐसा भी था जब ध्यान की अवस्था में अपना-अपना पद लिखाने की होड़ लगी रहती थी। लिखते-लिखते जब बाबा थक जाते थे। तब मां सरस्वती ने प्रगट होकर आर्शीवाद दिया था। उन्होंने बताया कि संत राममंगल दास से लिखित साहित्यों में भक्त भगवंत चरितावली, एवं चरितामृत प्रमुख हैं। ३१ दिसंबर १९८४ को संत राममंगल दास का महाप्रयाण हुआ था।
योगी श्यामा चरण लहिड़ी
अंबेडकरनगर जिले में मालीपुर के पास मगहिया की माटी श्यामा चरण् लाहिणी महाशय के भक्तों के लिए चंदन के समान है। यहां क्रियायोगियों की आवाजाही होती रहती है लेकिन सब कुछ बहुत परदेदारी में रहती है। मगहिया में लाहिड़ी महाशय की भस्मी समाधि भी है। यहां पर अंकित लेख के मुतााबिक मौखिक परंपरानुसार इन्हें मगहिया बाबा भी कहा जाता है। यहां एक सरोवर तथा उसके पूर्वी भीटे पर पूजित पीपल का बृक्ष आज भी है। कालांतर में गुरुणेश्वर बनारस निवासी दीक्षा गुरू योगिराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी के इस स्थान के प्रति भाविष्यवाणी का अनुसरण कर धौरुआ स्टेट के तालुकेदार चित्रसेन सिंह , मित्रसेन सिंह, परमेश्वरी कुंवरि व ज्योतिपुर के महादेव उपाध्याय द्वारा यहां देवालय का निर्माण कराया गया। देवालय के मध्य में वर्ष १९१७ में योगेश्वर महादेव की स्थापना की गई है और योगिराज लाहिड़ी महाशय की भस्मी समाधि दक्षिण स्थित कक्ष में तीन जून १९२९ को की गई। उनका चरणोदक सरोवर में डालकर उसे ब्रह्मकुंड के नाम से पूजित किया गया। उत्तरी कक्ष में वर्ष १९४९ में राधामाधव की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कार्तिक पूर्णिमा तिथि पर किए जाने के साथ इस स्थान का नाम श्री श्यामाचरण योगाश्रम रखा गया। इस स्थान का नाम पूज्य स्वामी योगानंद के योगी की आत्मकथा (मूल अंग्रेजी संस्करण) के पृष्ठ संख्या-२८४ के पाद टिप्पणी में भी अंकित किया गया है। फिलहाल यहां की देखरेख करता एक परिवार मिला लेकिन इस स्थान की महत्ता पर चुप ही रहा।
ठेले पर विराजते थे संत रगड़े दास
अयोध्या के सिद्ध संतों की परंपरा में श्रेष्ठ संत रगड़े दास जी का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है। संत रगड़े दास जी की जन्मभूमि अयोध्या से सरयू नदी उस पार बस्ती जिले हरैया के किसी गांव में हुआ था। वह पढे-लिखे नहीं थे लेकिन साधना और तप के जरिए रगड़े दास जी की ज्ञान चछु खुल गई थी। उनके दीक्षा गुरु बजरंग दास जी थे। लगभग सवा सौ साल की उम्र में हरिद्वार के कुंभ मेला क्षेत्र में वह साकेतवासी हो गए। पंचकोसी परिक्रमा मार्ग पर सरयू नदी से सटे चक्रतीर्थ में स्थित उनका आश्रम है। वह शरीर पर भस्म का श्रंगार करते थे। सरयू तट स्थित आश्रम में वट वृक्ष के नीचे कठिन साधना किया था और उसी वट वृक्ष के आश्रय में पर्णकुटी बनाकर रहते थे। यहीं वह ध्यानस्थ रहा करते थे। उन पर ईष्ट कृपा थी। यह उनकी सिद्धि का ही प्रभाव था कि एकांत में जब वह ध्यानस्थ होते थे तो प्रकृति प्रेम में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों की आवाज सुनाई पड़ती थी। अयोध्या के रायगंज निवासी भरतलाल गुप्त कहते हैं कि संत रगड़े दास वास्तव में पशु-पक्षियों केी भाषा में उनसे बात करते थे। ऐसा इसलिए भी उनकी आवाज के बाद पक्षियों से भी प्रति उत्तर मिलता था। ऐसा अक्सर होता था कि कोई उनका भक्त पेड़ के नीचे से किसी पक्षी की आवाज सुनने की इच्छा जताता तो वह यदि ध्यान में नहीं होते तो उसकी यह कामना जरूर पूरी करते थे। वह बताते हैं कि संत रगड़े दास प्रतिदिन अयोध्या भ्रमण पर ठेले से निकलते थे। भ्रमण के दौरान मार्ग में मिलने वाले भक्तों को इलाइची दाना व भस्म को प्रसाद के रूप में देकर आशीर्वाद देते हुए चलते थे। बच्चों के प्रति उनका बेहद लगाव रहता था।
युगलानन्य शरण जी महाराज
युगलानन्य शरण जी महाराज की तपस्थली लक्ष्मण किला रसिकोपासना के आचार्य पीठ के रूप में स्थित है। स्वामी जी युगल प्रियाशरण जीवाराम जी महाराज के शिष्य थे। वर्ष १८१८ में नालंदा के ईशरामपुर में जन्मे स्वामी युगलानन्य शरण जी का रामानंदीय वैष्णव संप्रदाय में विशिष्ट स्थान है। संस्कृत, उर्दू, अरबी एवं गुरुमुखी के अद्वितीय विद्वान होने के साथ ही गान विद्या में भी गहरी पैठ रखते थे। गोविंद सिंह की जन्मभूमि हरिमंदिर पटना में रहकर गुरुग्रंथ साहब की व्याख्या भी करते रहे। युगलानन्य शरण जी पटना से काशी, चित्रकूट होने हुए अयोध्या आए। युगलानन्य शरण जी ने रघुवर गुण दर्पण, पारस भाग श्रीसीताराम नाम प्रताप प्रकाश, सद्गुरू प्रताप सागर बिंदु, इश्कक्रांति, धामकांति, मधुर मंजमाला, शत सिद्धांत सार समेत ९२ ग्रंथों का प्रणयन किया है। आनंद की लहर में इस कद्र डूब जाते थे कि गाते-गाते नृत्य करने लगते हैं। उन्होंने घृताची कुंड पर १४ महीने का व्रत लेकर सीतारामनाम जप किया था। निरमोहिया से लागी लगनियां उनका प्रिय पद था। युगलानन्य शरण की तपस्चर्या से अभिभूत होकर एक भक्त सेे लगभग ५२ बीघा विस्तार में भूमि उन्हें दान स्वरूप दी थी, जहां पर लक्ष्मण किला स्थित है। वर्ष १९२ में लक्ष्मण किला की नींव पड़ी थी, जिसके यह संस्थापक हैं। सरयू के तट पर स्थित यह आश्रम श्रीसीताराम जी की आराधना के साथ ही श्रीरामनवमी, सावन झूला व श्रीराम विवाहोत्सव के आयोजन के रूप में मशहूर है। लक्ष्मण किला को स्पर्श कर बहती हुई सरयू सूर्यास्त के समय बहुत सुंदर लगने लगती हैं। महाराज श्री स्वप्न में भी अयोध्या से बाहर जाना पसंद नहीं करते थे लेकिन एक बार वह स्वप्न में जगन्नाथ भगवान का दर्शन करने पुरी पहुंच गए। धाम छूटने का अनुभव होते ही वह स्वप्न में ही रोने लगे तो इस पर भगवान जगन्नाथ ने उनकी भावना को समझ कर कहा कि मैं ही राम हूं। इस घटना का जिक्र उन्होंने धामकांति पुस्तक में किया है। गोलाबाजार निवासी हरिकृष्ण गोस्वामी बताते हैं कि ५९ वर्ष की आयु में उन्होंने अपने नस्वर शरीर को त्याग कर वह साकेतवासी हो गए। गौरतलब है कि अयोध्या के कई ऐसे संत हुए जो अयोध्या से बाहर नहीं गए।
तपस्वी नारायण दास (बगही बाबा)
अयोध्या में सरयू तट के पास तपस्वी नारायण दास बगही बाबा का फटिक शिला आश्रम स्थित है। बगही बाबा का जन्म १७ फरवरी १९१७ को बिहार के सीतामढ़ी जिले के बगही रणजीतपुर गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम रूपन यादव था।
नारायण चरित एवं नाम महिमा पुस्तक के मुताबिक घर से विरक्त होने के बाद बगही बाबा, काशी, ऋषीकेष सहित कई अन्य स्थलों पर भ्रमण के दौरान इनकी मुलाकात रामकिशुनदास से हुई। ये प्रयाग के दारागंज के संत थे। उनसे ही बगही बाबा ने दीक्षा प्राप्त की। भ्रमण के ही समय बार-बार अन्न को लेकर हुए तरह-तरह की घटनाओं ने बाबा के मन में अन्न से भी विरक्त का भाव पैदा कर दिया। उन्होंने संकल्प ले लिया कि अब वे केवल गाय के एक गिलास दूध पर ही अपना जीवन यापन करेंगे। रामनाम से उनका विशेष अनुराग था। हर समय बगही बाबा राम में ही लीन रहते थे। उनका उद्देश्य विश्व कल्याण के लिए रामनाम का प्रचार था। घूमते-घामते बगही बाबा १९७८ में श्रीराम की पावन भूमि अयोध्या पहुंच गए। यहां उन्होंने सरयू तट के वासुदेव घाट पर अनवरत रामनाम जप करके तपस्या शुरू कर दी। उनकी साधना की असर रहा कि जिले ही नहीं, बल्कि दूसरे प्रांतों से आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ बगही बाबा के पास लगने लगी। सन १९८५ में विश्व कल्याण के लिए उन्होंने बड़ी सीताराम नाम यज्ञ का आयोजन किया। वह स्वयं सिर्फ सरयू का जल पीकर तपस्या में लीन रहे। यज्ञ में हजारों की तादात में श्रद्धालुओं ने भाग लिया। इसके बाद तो यह स्थल स्फटिकशिला तपस्वी नारायन दास जी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। एक बार फिर उन्होंने विश्वकल्याण के लिए श्री सीताराम नाम यज्ञ का आयोजन किया। यह आयोजन इतना विशाल था कि पूरा सरयू तट राममय हो गया। यज्ञ में शामिल होने के लिए विहार और नेपाल से श्रद्धालुओं की पूरी जमात पहुंच गई। कई दिनों तक यज्ञ चला। लाखों की संख्यां में श्रद्धालु भक्तों ने निरंतर प्रसाद ग्रहण किया। मंदिर के लोग बताते हैं कि बगही बाबा लगातार अपने इसी आश्रम में तपस्या करते रहे। वह अपने भक्तों के बीच रामनगरी की संत परंपरा के मुकुट मणि के रूप में माने जाते हैं।
रामशंकरदास उ्रर्फ स्वामी पागल दास जी
मृदंग सम्राट से विभूषित डा. रामशंकर दास उर्फ पागलदास का जन्म देवरिया जिले के मझौली ग्राम में १५ अगस्त १९२० ईसवी को हुआ था। १४ वर्ष की आयु में रामकिशुन दास जी बंगाली बाबा से दीक्षा ग्रहण की। जीवन के शुरूआती दौर में बिहार में नाट्य कंपनियों में अभिनय से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई थी। मृदंग की शिक्षा २० वर्ष तक अयोध्या के भगवान दास, ठाकुर दास और राममोहिनी शरण से ग्रहण किया। ताल जगत की संस्थाओं ने स्वामी पागल दास को मृदंग सम्राट, मृदंग मार्तण्ड, मृदंग केशरी, तबला शास्त्री, संगत सम्राट, पखावज दा आदि संज्ञाओं से अलंकृत कर विभूषित किया। राष्ट्रपति आर वेंकटरमण ने १९८८-८९ में पागलदास जी को सम्मानित किया था। अयोध्या के प्रमोदवन में स्थित हनुमत विश्वकला संगीत आश्रम के संस्थापक आचार्य पागल दास ने मृदंग तबला प्रभाकर, तबला कौमुदी, रसनारिसायन, दास दोहावली, रामलीला, हनुमत चरितामृत आदि स्वर संगीत से संबंधित कालजयी पुस्तकों की रचना किया। २० जनवरी १९९७ को उनका साकेतवास आश्रम में ही हुआ था। उनके उत्तराधिकारी व संगीत आश्रम के प्रमुख विजयराम दास तालमणि ने कहा कि हमारे गुरू मृदंग के जयघोषक थे। अवधी घराने के प्रतिनिधि वादक थे। हमारे जैसे अनेक छात्रों को उन्होंने संगीत जगत् में सेवा करने का सुअवसर प्रदान किया है। उनसे दीक्षित शिष्य वर्तमान में देश भर में संगीत जगत् में मृदंग व तबला विधा की सुगंध बिखेर रहे हैं। वर्तमान में आश्रम में २० बच्चे तबला, पखावज व गायन की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।
बाबा बनादास जी
गोंडा जिले के अशोकपुर गांव में वर्ष १८२१ में बाबा बनादास का जन्म गुरुदत्त सिंह के यहां हुआ था। बनादास जी के दीक्षा गुरु शैव योगी महात्मा लक्ष्मण वन थे ३० वर्ष की अवस्था में आध्यात्म की तलाश में अयोध्या आ गए, जहां सिया वल्लभशरण के सतत् सानिध्य में रहे। सिया वल्लभ शरण को इनका साधना गुरू कहा जाता है। पुत्र शोक ने बाना सिंह को संसार की नश्वरता का बोध करा दिया और पुत्र के शव के साथ ही उनके भीतर समाया हुआ संसार भी सदा-सदा के लिए विदा हो गया। ‘एक भरोसो राम को और आस भई छीन’ जैसी पंक्तियों के गायक बाबा बना दास अजगरी वृत्ति धारण कर अयोध्या में कठिन कठोर साधना में लीन हो गए। तुलसी उद्यान के पीछे घास-फूस की कुटी को भवहरण कुंज नाम देकर वे अध्यात्म और साहित्य की साधना में लीन हो गए। पढ़े लिखे तो नहीं थे लेकिन अध्यात्म की रोशनी का ही कमाल था कि उन्होंने ६४ काव्य ग्रंथों की रचना कर डाली। आगरा, गोरखपुर, मगध विश्वविद्यालय के छात्रों ने उनके ऊपर शोध किया। पुजापा पर उन्होंने गहरे तंज कसे हैं। लिखा है कि दुनिया अन्न बिना मर जावै, धनी भए मठधारी, खाहि पेट भर करै न कष्टा, सोवै टांग पसारी, जे गरीब ते अन्न कै दुखिया, रामनाम अवराधै। रामनाम जप उनकी सांसों में सतत् चलता रहता था। वर्ष १८९२ में ७१ वर्ष की आयु में वह गोलोकवासी हो गए।
पं. रामकृष्ण पांडेय ‘आमिल’
रामकृष्ण पांडेय आमिल का जन्म २६ जून १९३१ को अंबाला में राम प्रताप पांडेय व सरस्वती देवी के यहां हुआ था। २१ वर्ष की अवस्था में वह अंबाला से अपने पैतृक गांव अयोध्या के कलाफरपुर मजरे पूरे सेठ आ गए। प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। पीताबंरा पीठ दतिया के स्वामी जी महाराज के शिष्य थे। यहीं पर उन्होंने शुरुआती दौर में शाक्त संप्रदाय के तहत धूनी रमाई। बाद में अयोध्या में श्री अध्यात्म शक्ति पीठ की स्थापना की। अयोध्या में ‘गुरूजी’ ने जीवन भर मानवता के कल्याण के लिए कार्य किया। सभी धर्मो के लोग इनकी शिष्य परंपरा में है। अध्यात्म के साथ साहित्य में भी इनकी गहन रुचि थी। उनकी रचनाओं में अध्यात्म और सूफियाना अंदाज बयां हुआ है। उन्होंने मंत्र चिंतन, दावते नजर, अक्शे गजल, आइना, सांसों की सरगम, जिक्रे दौरा, तंत्र परिचय, भाव विंब, अंतर्यात्रा आदि पुस्तकों की रचना की। उन्होंने श्री शक्तिपीठ मुबारकगंज में मंत्र अनुसंधान केंद्र की स्थापना की थी। यहीं से लगभग चार दशक से अनादि आस्था पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है। पुस्तक इद्म लोकाय के मुताबिक २३ मार्च २००५ को आमिल जी ने इहलीला का संवरण कर लिया। उनकी समाधि श्री अध्यात्म शक्ति पीठ मुबारकगंज में है जहां पर भक्त अपनी श्रद्धा निवेदित करते है।