अयोध्या आंदोलन के नल-नील
वीपी सिंह की सरकार के समय अयोध्या आंदोलन अपने उफान पर था। उन्हीं दिनों सरकार ने एक ऐसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को चुना जो धर्माचार्यों से सहज संवाद कर सकते थे। वह नाम किशोर कुणाल का था। तब वे डीआईजी रेंक के अधिकारी थे। जून 1990 में वे कांची के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती के पास गए। उनसे अनुरोध किया कि वे हिन्दू मुस्लिम धर्मगुरुओं के नाम एक अपील जारी करें, ताकि संवाद का रास्ता तैयार किया जा सके। जयेंद्र सरस्वती की अपील का तत्काल असर हुआ। जामा मस्जिद के इमाम साहब सैयद अब्दुल्ला बुखारी ने उनकी अपील का स्वागत किया।
संवाद का सेतु बनाने के बाद किशोर कुणाल ने एक प्रस्ताव दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि हर कोई यथास्थिति के पक्ष में है। दोनों पक्ष यथास्थिति स्वीकार करे, यही राम जन्मभूमि का समाधान है। इसका अर्थ यह था कि हिन्दू पूजा-पाठ करते रहें और ढांचा भी बना रहे। उस प्रस्ताव के बाद ही अगस्त 1990 में सरकार एक अध्यादेश लेकर आई। उसका सारांश था कि यथास्थिति बनी रहेगी। उन दिनों समाधान की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि थी, लेकिन वह राजनीति की भेंट चढ़ गई। वीपी.सिंह को अध्यादेश वापस लेना पड़ा। वे मुलायम सिंह यादव से अपनी राजनीति खींचतान के कारण कोई सार्थक उपलब्धि हासिल नहीं कर पाए। लेकिन, समाधन की दिशा में किशोर कुणाल प्रयास करते रहे।
चंद्रशेखर के कार्यकाल में जब हिन्दू मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधियों के बीच संवाद का सिलसिला शुरू हुआ तो दोनों पक्षों के बीच समन्वय की भूमिका में किशोर कुणाल ही थे। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर चाहते थे कि विवाद का समाधान जल्द से जल्द निकले। किशोर कुणाल उनकी मदद कर रहे थे। इस संवाद में हिन्दू मुस्लिम पक्षों के बीच वे सेतु का काम कर रहे थे। साक्ष्यों के आधार पर बातचीत आगे बढ़ा रहे थे। उस वक्त चंद्रशेखर समाधान के करीब पहुंच गए थे। वे आखिरी निर्णय करने वाले थे कि मार्च 1991 में कांग्रेस पार्टी ने अपना समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार को गिरा दिया। इस तरह यह विवाद राजनीतिक स्वार्थ की भेंट चढ़ गया।
नरसिंह राव की सरकार में भी किशोर कुणाल अयोध्या मसले पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। लेकिन, सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं थे। सभी अपनी राजनीतिक लाभ-हानी से प्रेरित होकर विचार कर रहे थे। यही वजह थी कि सकारात्मक पहल के बावजूद किशोर कुणाल जैसे महत्वपूर्ण लोग अयोध्या मसले का अंतिम समाधान नहीं दे पा रहे थे। इसी दौरान 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया गया। इससे समस्या बढ़ गई और देश में तनाव फैल गया।
राम जन्मभूमि आंदोलन अलग रंग लेने लगा। रामालय ट्रस्ट बना। लेकिन इस ट्रस्ट को कोई सफलता नहीं मिली। केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो बतौर रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने एक दिन किशोर कुणाल को बुलावा भेजा। बतौर किशोर कुणाल- ‘उन्होंने मुझसे कहा कि प्रधानमंत्री वाजपेयी राम जन्मभूमि के मसले पर आपसे बातचीत करना चाहते हैं।’ उन्हें कांची के शंकराचार्य के पास भेजा गया।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रतिनिधियों के साथ उनकी दो बार भेंट हुई। लेकिन कोई बात नहीं बनी। सरकार से दूर होने के बाद किशोर कुणाल मंथन के दौर से गुजरे। फिर यह निश्चय किया कि सही के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। उन्हें रामधारी सिंह दिनकर की कविता याद आई- ‘जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनके भी अपराध।’ कुणाल कहते हैं- ‘मुझे लगा की मेरे पास इतने साक्ष्य हैं। मैं यदि तटस्थ रहता हूं तो मुझे इतिहास मांफ नहीं करेगा। इसलिए हमने तय किया कि मुझे अयोध्या की लड़ाई में आगे आना चाहिए।’
आखिरकार किशोर कुणाल ने अयोध्या पर एक पुस्तक लिखी और स्वरूपानंद सरस्वती की संस्था ‘राम जन्मभूमि न्यास जीर्णोद्धार समिति’ के जरिए इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा लड़ा। कोर्ट ने उस मुकदमे पर बराबरी का फैसला दिया। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने उनकी किताबों को बतौर साक्ष्य स्वीकारा। उसी किताब का नक्शा था, जिसे सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्षकार के वकील राजीव धवन ने फाड़ा था। वह खबर सुर्खियों में रही थी।
किशोर कुणाल की वह किताब यह सिद्ध करती है कि मस्जिद के बीच ही भगवान राम का जन्म स्थान है। उन्होंने इस बात के भी प्रमाण प्रस्तुत किए कि मंदिर से मस्जिद बनने के बाद भी हिन्दुओं की पूजा निरंतर चलती आ रही है। वहां मुसलमानों ने कभी नमाज नहीं पढ़ा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को सुनाते वक्त साक्ष्य को रूप में इन बातों को आधार बनाया।